जीवन यात्रा - नाथद्वारा से जयपुर
आधुनिक राजस्थान के निर्माता युग पुरूष स्व. मोहनलाल सुखाड़िया का जन्म सन् 1916 में श्रावणी अमावस्या (31 जुलाई) के दिन नाथद्वारा में हुआ। श्रावणी अमावस्या का राजस्थान जैसे मरूप्रदेश के लोकजीवन में बड़ा महत्व है। इसे हरियाली अमावस्या भी कहते है। श्रावण मास में बहुप्रतीक्षित जीवनदायिनी वर्षा की फुहारों से मरूभूमि को नया जीवन मिलता है। खेतों में रौनक आती है और चारों ओर हरीतिमा फैल जाती है। हरियाली अमावस्या मेघ आच्छादित आकाश और वर्षा की झड़ी से जन-जन को समृद्धि और सुखद भविष्य के प्रति आशा और विश्वास से भर देती है। श्रावण मास से ही राजस्थान में त्यौहारों और उत्सवों सिलसिला शुरू हो जाता है। यह एक सुखद संयोग है कि हरियाली अमावस्या के दिन जन्मे बालक ‘मोहन’ ने आधुनिक राजस्थान का निर्माण कर सम्पूर्ण प्रदेश की समृद्धि और सुखद भविष्य का मार्ग प्रशस्त किया।
श्री सुखाड़िया के पिता श्री पुरूषोतमदास सुखाड़िया बम्बई और सौराष्ट्र के जाने-माने क्रिकेट खिलाड़ी थे। नाथद्वारा स्थित श्रीनाथ जी मन्दिर के तिलकायत जी श्री गोवर्धनलाल जी महाराज अपने पुत्र श्री दामोदरलाल को क्रिकेट सिखलाने के लिये श्री पुरूषोतमदास को नाथद्वारा लेकर आये थे। अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के पश्चात् श्री पुरूषोतमदास ने नाथद्वारा में दूसरी शादी की। नाथद्वारा में ही उनके दो संताने उत्पन्न हुई। मोहनलाल सुखाड़िया और मणि नाम की एक कन्या। मणि अपने विवाह के कुछ समय उपरान्त ही काल कवलित हो गई। श्री सुखाड़िया को अपने पिता से अनुशासन और मितव्ययता के गुण जीवन में अपनाने की प्रेरणा मिली। उनके पिता महात्मा गांधी के परम भक्त थे। वे नियमित रूप से समाचार पत्र पढ़ते और अपने मित्रों से उन दिनों देश में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन के बारे में चर्चा करते। श्री सुखाड़िया के बालक मन पर तभी से राजनीति और देश सेवा के संस्कार अंकित होने शुरू हो गये थे।
श्री सुखाड़िया को क्रिकेट के खेल में रूचि भी अपने पिता से विरासत के रूप में मिली। खेल में दक्षता के कारण उन्हें स्कूल की क्रिकेट टीम का कप्तान बनाया गया। वहीं से उनमें अनुशासनपूर्ण टीम भावना से कार्य करने और नेतृत्व के गुणों का विकास हुआ। विलक्षण, भावपूर्ण एवं मंत्रमुग्ध कर देने वाली भाषण की कला का विकास भी उन्होंने इसी अवधि में किया। वे स्कूल की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिये मनोयोग से तैयारी करते और पुरस्कार जीतते।
बम्बई में अध्ययन
नाथद्वारा और उदयपुर में प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद श्री सुखाड़िया तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिये बम्बई चले गये। वहां से उन्होंने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का डिप्लोमा प्राप्त किया। वे विक्टोरिया इंस्टीट्यूट (VJTI) बम्बई के विद्यार्थी थे। अपनी कुशाग्र बुद्धि और नेतृत्व के गुणों के कारण वे इंस्टीट्यूट की छात्र परिषद् के महासचिव चुने गए। इंस्टीट्यूट के एक समारोह में अंग्रेज प्रिंसीपल श्री बर्ले तत्कालीन बम्बई राज्य के अंग्रेज गवर्नर को बुलाना चाहते थे, लेकिन श्री सुखाड़िया ने सब साथियों को साथ लेकर इसका विरोध किया। उनका आग्रह था कि बम्बई राज्य की तत्कालीन उत्तरदायी सरकार के कांग्रेसी मुख्यमंत्री श्री बी.जी. खेर को इस समारोह के लिए आमंत्रित किया जाय। छात्रों की एकजुटता को देखते हुए अंततः उनके आग्रह को स्वीकार किया गया। अंग्रेजी सरकार के नुमाइंदे के खिलाफ श्री सुखाड़िया का यह पहला आंदोलन था जिसमें वे सफल रहे।
बम्बई में अध्ययन करते समय वे श्री सुभाषचन्द्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्री युसुफ मेहरअली तथा श्री अशोक मेहता जैसे राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में आये। उन दिनों सरदार पटेल जब बम्बई में कांग्रेस पार्टी के स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं की जो बैठकें आयोजित करते, श्री सुखाड़िया उनमें सम्मिलित होते थे।
जब में उदयपुर लौटे तो जीवनयापन के लिये बिजली के सामान की एक दुकान खोली। उनके कुछ पुराने सहयोगी कहते है कि बाह्य रूप से तो यह एक दुकान थी, लेकिन वास्तव में यह श्री सुखाड़िया की राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्रस्थल था जहां उनके साथी एकत्रित होते और मेवाड़ को राजशाही और देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के उपायों पर गंभीर चर्चा करते। वे और उनके साथी राजनीतिक गतिविधियों के साथ सामाजिक-सुधार और शिक्षा-प्रसार का कार्य भी अहर्निश करते। शिक्षा-प्रसार के कार्य के अंतर्गत ही उनका परिचय इन्दुबाला जी के परिवार से हुआ और एक शिक्षक के रूप में उन्होंने इन्दुबाला जी को पढ़ाना शुरू किया। इस पढ़ाई के दौरान ही दोनों में प्रेमभाव उत्पन्न हुआ जो बाद में सुखद परिणय में परिवर्तित हुआ।
इन्दुबाला जी से विवाह
इन्दुबाला जी से श्री सुखाड़िया का विवाह उस समय की एक क्रांतिकारी घटना थी। उन्होंने सभी दकियानूसी रूढ़ियों और साम्प्रदायिक संकीर्णता से ऊपर उठकर यह विवाह किया था। जबर्दस्त सामाजिक विरोध के कारण नाथद्वारा अथवा उदयपुर में विवाह होना संभव नहीं था। इसलिये उन्होंने उस समय की अंग्रेजी सरकार द्वारा शासित अजमेर-मेरवाड़ा क्षेत्र के ब्यावर नगर में जाकर विवाह संस्कार को सम्पन्न करना सुरक्षित समझा। ब्यावर में आर्य समाज की पद्धति से 1 जून, 1938 को विवाह समारोह सम्पन्न हुआ। विवाह के पश्चात् जब वर-वधू नाथद्वारा आये तो वहां के युवा साथियों ने अपूर्व उल्लास एवं उत्साह के साथ उनका स्वागत किया। इस विवाह का उनके भावी जीवन के संघर्ष में कितना सम्बल और महत्व था, यह उनके उन उद्गारों से प्रकट है जो उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ दिनों पूर्व अपने एक प्रशंसक के समक्ष प्रकट कियेग थे। उनके इन प्रशंसक महोदय ने श्री सुखाड़िया से पूछा था कि उनके दीर्घ सार्वजनिक जीवन की सबसे श्रेष्ठ घड़ी कौनसी थी? श्री सुखाड़िया का उत्तर था कि जब उन्होंने अपने अंतर्जातीय विवाह के बाद श्रीमती इन्दुबाला के साथ सामाजिक रूढ़ियों से घिरे हुए अपने नगर नाथद्वारा में एक जुलूस के रूप में प्रवेश किया। उस दिन वहां के युवकों ने 'मोहन भैया जिन्दाबाद' के नारे लगाते हुए हर्ष एवं उल्लास के साथ वर-वधू को सारे नगर में जुलूस के रूप में घुमा कर रूढ़िवादियों को करारी शिकस्त दी। स्वयं श्री सुखाड़िया के शब्दों में - ‘‘आज मैं सोचता हूं कि मुख्यमंत्री के रूप में भी मेरा ऐसा भव्य और अपूर्ण उत्साहपूर्ण जुलूस कभी नहीं निकला। इस जुलूस ने मुझे भावी जीवन के संघर्ष में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। मेरे ईर्द-गिर्द सशक्त नौजवानों की अपूर्व भीड़ थी। इस घटना के बाद मैने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा।’’
श्रीमती इन्दुबाला सुखाड़िया परिवार के लिए भाग्यलक्ष्मी एवं अन्नपूर्णा सिद्ध हुई। उनकी ममता, करूणा और वात्सल्य केवल परिवार तक ही सीमित नहीं थे बल्कि जो भी राजनीतिक कार्यकर्ता, कर्मंचारी और आगन्तुक उनके घर पर आता उन सबका वह एक ममतामयी माँ की भांति आतिथ्य सत्कार करती थी। श्री सुखाड़िया तो सदैव पहले एक राजनीतिक कार्यकर्ता और बाद में मेवाड़ राज्य के मंत्री और राजस्थान प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में व्यस्त रहते थे। इसलिए परिवारजनों और सभी आगन्तुकों को आतिथ्य प्रदान करना इन्दुबाला सुखाड़िया जी के ही जिम्मे था। ‘‘जिया’’ के नाम से लोकप्रिय श्रीमती इन्दुबाला सुखाड़िया पूरे राज्य की जनता में एक ममतामयी माँ के रूप में प्रतिष्ठापित थी। इन्दुबाला जी अपनी सादगी, वात्सल्य, करूणा और संस्कारित गुणें के कारण लोकमानक में ऐसा स्थान प्राप्त करेंगी, इसकी भविष्यवाणी उनके बाल्यकाल में एक ज्योतिषी ने की थी।
भारत के सुविख्यात ज्योतिष शास्त्री, पद्मविभूषण पण्डित श्री सूर्यनारायण व्यास के एक अनन्य भक्त ने वर्षो वहले बताया था कि इन्दुबाला की शैशव अवस्था में उनके पिता एक बार उज्जैन गये थे और वहां उन्होंने पण्डित सूर्यनारायण जी से अपनी बालिका के भविष्य के बारे में जानना चाहा था। पण्डित जी ने इन्दुबाला जी की जन्म कुण्डली देखते ही कहा था कि यह बालिका एक दिन किसी बड़े राज्य के प्रतापी एवं यशस्वी राजा की महारानी का पद सुशोभित करेगी। यह बात स्वतंत्रतमावस्या भी कहते है। श्रावण मासा प्राप्ति से लगभग डेढ़-दो दशक पहले के समय की है। उनकी यह भविष्यवाणी अक्षरशः सही चरितार्थ हुई।
इन्दुबाला जी ने दो पुत्रों तथा पाँच पुत्रियों को जन्म दिया। वे दुर्गा माता की अनन्य भक्त थी। वे स्वयं जो पूजा-पाठ करती ही थी, पूजा घर में दुर्गा माता और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों और चित्रों के आगे पवित्र ज्योति अहर्निश जलती रहती थी। जब श्री सुखाड़िया एक राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में कार्य करते थे उस समय भोजन बनाने और कपड़े धोने से लेकर घर के सभी कार्य करना इन्दुबाला जी के लिये स्वाभाविक था। लेकिन श्री सुखाड़िया के राजस्थान के मुख्यमंत्री बनने के बाद पूरे 17 वर्षो तक वे स्वयं ही मुख्यमंत्री निवास स्थित रसोई घर में बैठकर सबके लिए भोजन बनाने के काम में हाथ बंटाती रही। खाना खाने के समय जो भी व्यक्ति उनके निवास पर आता, उसे अपने हाथ से खिलाकर ही उन्हें आत्म-संतोष मिलता था।