सत्ता में भागीदारी
मेवाड़ राज्य प्रजामण्डल के निरन्तर आंदोलन और सघन प्रयासों के फलस्वरूप महाराणा ने वर्ष 1947 में मेवाड़ में लोकप्रिय सरकार का गठन किया तब प्रजामण्डल के प्रतिनिधि के रूप में श्री सुखाड़िया मेवाड़ राज्य के खाद्य आपूर्ति मंत्री बनाये गये। तत्पश्चात् संयुक्त राजस्थान का निर्माण होने पर वे 18 अप्रैल 1948 से 30 मार्च 1949 तक श्री माणिक्यलाल वर्मा के मंत्रिमण्डल में सिंचाई एवं श्रम मंत्री रहे। वर्तमान राजस्थान राज्य का गठन होने पर 26 अप्रैल, 1951 से 3 मार्च, 1952 तक और और बाद में श्री जयनारायण व्यास के पुनः मुख्यमंत्री बनने पर 1 नवम्बर, 1952 से 6 नवम्बर, 1954 तक राजस्व, खाद्य आपूर्ति, कृषि एवं सिंचाई आदि विभागों के मंत्री रहे। 6 नवम्बर, 1954 को श्री जयनारायण व्यास ने विधायक दल का विश्वास प्राप्त करने में विफल रहने पर मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया। कांग्रेस पार्टी के विधायकों ने श्री व्यास के मुकाबले बहुमत से श्री मोहनलाल सुखाड़िया को अपना नेता निर्वाचित किया और मात्र 38 वर्ष की उम्र में उन्होंने 13 नवम्बर, 1954 को राज्य के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। इस पद पर वे दिनांक 8 जुलाई, 1971 तक रहे। निरन्तर 17 वर्षो तक मुख्यमंत्री पद पर रहने का उन्होंनें एक ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया जो आज तक अक्षुण्ण है।
कुछ लोगों के मन में यह भ्रांति है कि श्री सुखाड़िया ने श्री जयनारायण व्यास के विरूद्ध षड़यंत्र रचकर उन्हें हटाया। वास्तव में यह भ्रांति आधारहीन है। श्री सुखाड़िया के एक निकट सहयोगी रहे भूतपूर्व मंत्री श्री बृजसुन्दर शर्मा ने अपने लेख में वर्षों पूर्व यह लिखा था कि श्री जयनारायण व्यास जब मुख्यमंत्री थे जब वे श्री मथुरादार माथुर, श्री कुम्भाराम आर्य और श्री बृजसुन्दर शर्मा से नाराज हो गये और उन्होंने घोषणा कर दी कि वे कांग्रेस विधायक दल का विश्वास मत प्राप्त करेंगे।
श्री बुजसुन्दर शर्मा के शब्दों में ‘‘तम हम चारों, यानी मैं, सुखाड़िया जी, स्व. श्री मथुरादास माथुर और स्व. श्री कुम्भाराम आर्य श्री व्यास जी के पास गये और उनको मनाने का बहुत प्रयास किया। हम लोगों ने उनसे यह कहा कि वे हमारे नेता हैं। विश्वास प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है? हम लोग केवल एक ही बात उनसे स्वीकार करवाना चाहते थे किन्तु उन्होंने हमें निराश कर दिया। उस समय हाईकमान ने यह निर्णय लिया कि नेता पद के लिए चुनाव होगा। सुखाड़िया जी यह चुनाव लड़ने को बिल्कुल तैयार नहीं थे परन्तु सब साथियों के आग्रह पर ही बड़ी मुश्किल से वे तैयार हुए। लोगों के मन में यह भ्रांति है कि सुखाड़िया जी ने व्यास जी के विरूद्ध षड़यंत्र रचकर उन्हें हटाया। यह दूर होनी चाहिए।’’
इस बात की पुष्टि राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध इतिहासकार श्री बी.एल. पानगड़िया भी करते है। उन्होंने श्री सुखाड़िया से कहा था कि उनके दीर्घ सार्वजनिक जीवन की सर्वश्रेष्ठ घड़ी तो 13 नवम्बर, 1954 का दिन था जब उन्होंने श्री जयनारायण व्यास जैसे दिग्गज नेता को हरा कर वृहद् राजस्थान के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। श्री सुखाड़िया ने इसके उत्तर में कहा था कि ‘‘वह दिन तो उनके लिए अनन्त पीड़ा का था। उन्हें किन्हीं परिस्थितियों वश व्यास जी जैसे गुरूजन से टक्कर लेनी पड़ी थी।’’
श्री सुखाड़िया को श्री माणिक्यलाल वर्मा का वरदहस्त और मेवाड़ अंचल के सभी विधायकों का समर्थन तो प्राप्त था ही, इसके अलावा जयपुर खण्ड से श्री टीकाराम पालीवाल की स्वयं की तटस्थता के कारण उनके समर्थक विधायकों का समर्थन भी उन्हें सहज ही मिल गया। यही नहीं श्री जयनारायण व्यास के गृह जिले जोधपुर क्षेत्र से भी अनेक सदस्यों ने विधायक दल के नेता के चुनाव में श्री सुखाड़िया को समर्थन दिया। वरिष्ठ पत्रकार और राजस्थान की राजनीति के अध्येता श्री सीताराम झालानी के शब्दों में ‘‘श्री व्यास के विरूद्ध कांग्रेस विधायक दल में बढ़ते हुए असंतोष को देखकर कांग्रेस उच्च सत्ता ने श्री व्यास को विधायक दल का विश्वास प्राप्त करने का निर्देश दिया। 6 नवम्बर, 1954 को सारे देश की निगाहें जयपुर की ओर थी जहां न केवल प्रदेश की राजनीति अपितु समस्त देश के तब तक के जनतंत्रीय इतिहास में प्रथम बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर एक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित नेता का एक अपेक्षाकृत युवा और नये नेता मोहनलाल सुखाड़िया से खुला मुकाबला हो रहा था। इस मुकाबले में श्री सुखाड़िया, जो श्री व्यास के मंत्रिमण्डल में राजस्व मंत्री थे, आठ मतों के अंतर से श्री व्यास को पराजित करने में सफल रहे।’’ चुनाव में विजयी घोषित होते ही सुखाड़िया ने सबसे पहले श्री जयनारायण व्यास का आशीर्वाद प्राप्त किया। जब तक व्यास जी जीवित रहे उन्हें तथा उनके परिवार को श्री सुखाड़िया ने पूरा सम्मान दिया। वर्ष 1956 में आपने श्री व्यास को न केवल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर आसीन कराया अपितु 1960 में उन्हें ससम्मान राज्य सभा के लिये भी निर्वाचित कराया। वे 14 मार्च, 1963 को अपने निधन तक राज्य सभा के सदस्य रहे।
श्री जयनारायण व्यास का कांग्रेस पार्टी में इस बात को लेकर विरोध होना प्रारम्भ हुआ था कि उन्होंने 1952 के चुनाव के बाद कांग्रेस पार्टी में बाहर के 22 विधायकों को सम्मिलित कर लिया था। इनमें अधिकांश रामराज्य परिषद् के टिकिट अथवा निर्दलीय रूप से चुनाव जीतकर आये थे और अधिकांश भूतपूर्व जागीरदार थे। श्री माणिक्यलाल वर्मा सहित अधिकांश कांग्रेसी नेताओं का मानना था कि जिन जागीरदारों के जुल्मों के विरूद्ध उन्होंने वर्षो तक संघर्ष किया और यातनाये सहन की, उन्हें कांग्रेस पार्टी में सम्मिलित नहीं किया जाना चाहिये था।
यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान विधानसभा के 1952 में हुए प्रथम आम चुनाव के समय कुछ विधायकों की संख्या 160 थी। इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी केवल 82 स्थानों पर विजयी हुई थी जो संख्या आधे से केवल दो अधिक थी। चुनाव में रामराज्य परिषद् के 24, भारतीय जनसंघ के 8, हिन्दू महासभा के 2, कृषिकार लोकपार्टी के 7, कृषक-मजदूर पार्टी के 1 तथा निर्दलीय 35 विधायक चुने गये थे। ऐसी स्थिति में श्री जयनारायण व्यास ने विधानसभा में अच्छा बहुमत स्थापित करने के लिए इन 22 विधायकों को कांग्रेस पार्टी में अपने बुद्धिविवके के आधार पर शामिल किया होगा लेकिन उन्हीें की पार्टी के सहयोगी नेताओं द्वारा इसका घोर विरोध किया गया था।
यह उल्लेखनीय है कि प्रथम विधान सभा चुनाव में श्री जयनारायण व्यास ने जोधपुर-बी और जालौर-ए, दो क्षेत्रों से चुनाव लड़ा था और वे दोनों ही स्थानों से पराजित हुए थे। श्री टीकाराम पालीवाल ने भी महुआ और मलारनाचैड़, दो क्षेत्रों से चुनाव लड़ा और वे दोनों ही क्षेत्रों से विजयी रहे थे। श्री पालीवाल ने दिनांक 3 मार्च, 1952 को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। श्री सुखाड़िया को एक मंत्री के रूप में उन्होंने अपने मंत्रिमण्डल में सम्मिलित किया था।
इसके बाद श्री व्यास के लिये किशनगढ़ क्षेत्र से निर्वाचित कांग्रेस विधायक श्री चांदमल मेहता ने त्यागपत्र देकर स्थान रिक्त किया। वहां से उप चुनाव में श्री व्यास निर्वाचित हुए, और एक नवम्बर 1952 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। श्री पालीवाल भी मंत्री के रूप में इस मंत्रिमण्डल में सम्मिलित किये गये।
यहां यह उल्लेख करना भी प्रासंगिक है कि 1952 के प्रथम विधानसभा चुनाव में सर्वश्री हीरालाल शास्त्री, माणिक्यलाल वर्मा, गोकुल भाई भट्ट और राजबहादुर आदि वरिष्ठ नेताओं ने भाग नहीं लिया था। सर्वश्री माणिक्यलाल वर्मा, गोकुल भाई भट्ट और राजबहादुर ने प्रथम लोकसभा का चुनाव (1952) लड़ा था जिसमें तीनों नेता ही पराजित हुए थे। बाद में श्री वर्मा और श्री राजबहादुर उप चुनावों में विजयी होकर लोकसभा में पहुंचे थे। सर्वश्री विजयसिंह पथिक, गोकुललाल असावा, युगलकिशोर चतुर्वेदी और अभिन्न हरि जैसे दिग्गज नेताओं को श्री जयनारायण व्यास की ही भांति विधानसभा के प्रथम आम चुनाव में पराजय का मुंह देखना पड़ा था। इनमें श्री पथिक ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ा था। राजस्थान की राजनीति के इतिहास के कुछ व्याख्याकारों का कहना है कि विधानसभा में इन दिग्गज नेताओं की अनुपस्थिति का श्री सुखाड़िया जैसे युवा नेता को राजस्थान की सत्ता के शीर्ष स्थान पर पहुंचने में परोक्ष योगदान था।
जुलाई 1971 आते-आते श्री सुखाड़िया ने निश्चय कर लिया कि अब उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ देना चाहिए। उस समय कांग्रेस विधायक दल के सभी सदस्य श्री सुखाड़िया के प्रति निष्ठावान थे और वे उनके प्रति अपना समर्थन और निष्ठा प्रदर्शित करने के लिये दिल्ली तक भी गये। लेकिन 8 जुलाई, 1971 को श्री सुखाड़िया त्याग पत्र देकर मुख्यमंत्री के पद से मुक्त हो गये। वे राजस्थान के एक मात्र मुख्यमंत्री थे जिन्हें राजस्थान सरकार के सचिवालय प्रांगण में कर्मचारियों और अधिकारियों द्वारा समारोह आयोजित कर भावभीनी विदाई दी गई। हजारों अश्रुपूरित नेत्रों ने जब उन्हें सचिवालय से विदा किया तब भी नम आंखों से श्री सुखाड़िया मुस्करा रहे थे। उन्होंने अपने विदायी भाषण में और अन्य बातों के साथ यह भी स्पष्ट कर दिया कि जब उनकी सरकार ने राज्य कर्मचारियों की सेवा-निवृति आयु 58 से घटाकर 55 करने का निर्णय लागू किया है तो यह मेरा भी नैतिक कर्तव्य है कि मैं भी 55 वर्ष में ही अपने पद से अवकाश ग्रहण करूं।
श्री सुखाड़िया ने मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र देने के पश्चात् आकाशवाणी से राजस्थान की जनता के नाम जो मार्मिक संदेश दिया, वह अविकल रूप से यहां उद्धृत है - ‘‘राजस्थान के प्रशासन में आये मुझे लगभग बीस वर्ष हो गये और इसमें से सत्रह वर्ष के करीब मुख्यमंत्री के पद रहते हो गये। मैं कल से इस पद की जिम्मेदारी छोड़ रहा हूँ, उसके पहले राजस्थान के समस्त नागरिकों का अभिवादन कर रहा हूँ। इस अवधि की जो कुछ भी उपलब्धियाँ रही हो, वह सब आपके स्नेह, विश्चास और सहयोग का परिणाम है और जो गलतियां हुई, वह मेरी अपनी है। इस लम्बे समय में राजस्थान की जनता ने जो स्नेह और अपनापन मुझे दिया है वह मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान निधि है और मैं उसे जीवन पर्यन्त नहीं भूल सकता।’’
मैं आज फिर स्वेच्छा से एक सामान्य नागरिक बनकर आपके बीच आ रहा हूँ और जो कुछ सेवा मुझसे हो सकेगी, करता रहूंगा।
इस समय में कुछ आन्दोलन भी हुए और उसके दौरान कुछ दुर्घटनाएं भी हुई जिसका वजन मैं अपने दिमाग से नहीं हटा सकूंगा और सदा उसका गहरा दुख मेरे मन में रहेगा। कल से मेरे स्थान पर बरकतुल्ला खां उत्तरदायित्व संभालेंगे। वे बहुत पुराने जनसेवी रहे है। मैं सबसे यही कहना चाहूंगा कि जितना सहयोग आप सबने मुझे दिया उससे भी अधिक उनको दें और राजस्थान को सुदृढ़ बनायें।
श्री सुखाड़िया की विदाई के अवसर पर राजस्थान विधानसभा द्वारा आयोजित समारोह को सम्बोधित करते हुए तत्कालीन राज्यपाल सरदार हुकुमसिंह ने कहा था कि श्री सुखाड़िया ने ऐसे समय पर पदत्याग किया है जबकि वे पूरी ताकत के साथ सत्ता में हैं और उन्हें किसी ओर से चुनौती का सामना नहीं करना पड़ रहा है। उन्होंने सत्ता के बाहर रहकर जनता की खिदमत करने के लिये अपने पद से अलग होने का जो निर्णय लिया है, वह एक असाधारण बात है।
दिनांक 10 जुलाई, 1971 को जयपुर रेलवे स्टेशन पर श्री सुखाड़िया को विदाई देने के लिये अभूतपूर्व भीड़ जमा थी तथा श्री सुखाड़िया लगभसग ढाई घंटे तक प्लेटफार्म पर घूमते हुए जनसमूह से पुष्पाहार एवं करबद्ध नमस्कार स्वीकार करते रहे। बुजुर्गो के अनुसार रेलवे स्टेशन पर इससे पूर्व कभी नहीं देखी गई।
श्री सुखाड़िया जब चेतक एक्सप्रेस द्वारा उदयपुर पहुंचे तो वहां रेलवे स्टेशन पर लगभग बीस हजार नर-नारियों ने ‘‘सुखाड़िया जिन्दाबाद’’ के नारों के साथ उनका स्वागत किया। रेलवे स्टेशन से दुर्गा नर्सरी स्थित उनके निवास स्थान तक पौन मील लम्बे मार्ग पर पच्चीस स्वागत द्वारा बनाये गये थे। सड़क के दोनों तरफ मकानों की छतों और झरोखों से हजारों नर-नार, स्कूली बच्चे हाथ हिलाकर, पुष्प वर्षा कर श्री सुखाड़िया का स्वागत कर रहे थे।
नाथद्वारा में नगर कांग्रेस द्वारा दिनांक 23 जुलाई, 1971 को आयोजित सम्मान समारोह को सम्बोधित करते हुए श्री सुखाड़िया ने कहा कि कांग्रेस के आंतरिक झगड़ों अथवा अन्य किन्हीं बातों से डरकर उन्होने मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र नहीं दिया है। उन्होंने कहा कि ‘‘मेरा बचपन नाथद्वारा की गलियों और हल्दीघाटी के समीप बीता है जो मेरी प्रेरणा के स्रोत है। अतः संघर्षो से भयभीत होना मैंने नहीं सीखा।’’
श्री सुखाड़िया ने स्वेच्छा से त्यागपत्र दिया था जिसकी इसकी पुष्टि सरदार गुरमुख निहालसिंह भी करते हैं जो 1 नवम्बर, 1956 से 15 अप्रैल, 1962 तक राजस्थान के राज्यपाल रहे। उन्होंने वर्ष 1969 में एक प्रसंग में लिखा है कि श्री सुखाड़िया ने कई बार मुख्यमंत्री का पद छोड़कर केन्द्रीय कांग्रेस पार्टी अथवा केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में जाने की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन कांग्रेस हाई कमान उनके नेतृत्व की क्षमता एवं योग्यता से इतना अधिक प्रभावित था कि उसने उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ने की अनुमति नहीं दी।
राजनीति का इतना कुशल खिलाड़ी होते हुए भी श्री सुखाड़िया अपने अन्तर्मन में राजनीति से बहुत संतुष्ट नहीं थे। अपने बड़े दामाद श्री मन्नालाल गोयल के नवनिर्मित मकान के नांगल के समय वे इच्छा होते हुए भी जयपुर नहीं पहुंच सके। उन्होंने इस सम्बन्ध में जो पत्र अपने दामाद को लिखा, वह वास्तव में मार्मिक है। उन्होंने लिखा ‘‘कल मकान के नांगल के समय मैं वहां उपस्थित नहीं रह पा रहा हूँ, उससे मेरे मन में काफी दुख है। लेकिन क्या करूं, मजबूरी है। बहुत ख्यात होता है कि यह राजनीति भी कैसी है कि जिसमें अपने परिवार वालों के लिए भी समय न निकाल पाये, लेकिन अभी तो इसमें फंसे हुए हैं ही। आगे जब छुटकारा मिले तब सही।’’
जब देश में ‘‘कामराज योजना’’ के अंतर्गत कुछ शीर्षस्थ नेताओं से त्यागपत्र लेकर सत्ता से अलग किया गया तब श्री सुखाड़िया ने भी मुख्यमंत्री पद छोड़ने की इच्छा पं. जवाहरलाल नेहरू के समक्ष व्यक्त की थी लेकिन पं. नेहरू ने ऐसा करने की अनुमति नहीं दी।