सर्वव्यापी पिछड़ेपन की चुनौती
श्री सुखाड़िया जब 13 नवम्बर, 1954 को मुख्यमंत्री बने, राज्य का भौगोलिक एकीकरण हो चुका था। उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्रियों ने जागीर उन्मूलन सम्बन्धी कानून बना दिया था और राज्य के विभिन्न क्षेत्रों, विशेषकर उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित जिलों की जनता को डाकुओं के आतंक से मुक्त कर दिया गया था। लेकिन सर्वव्यापी पिछड़ेपन की विकट समस्या से राज्य की समस्त जनता त्रस्त थी। राजस्थान के तीन लाख बयालीस हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में लगभग साठ प्रतिशत भू-भाग में फैले विशाल थार मरूस्थल में इन्द्र भगवान की कृपा से यदि कभी वर्षा हो जाती तो वहां के लोग इसे बड़ा वरदान समझ कर थोड़ी बहुत खरीफ की फसल पैदा कर लेते थे।
लगभग 28 प्रतिशत क्षेत्रफल कृषि क्षेत्र के अंतर्गत था। इसमें से सिंचित भूमि मात्र 12 प्रतिशत थी जिसमें से केवल 3 प्रतिशत कृषि भूमि को नहरों से सिंचाई की सुविधा उपलब्ध थी। पूरे राज्य में उस समय केवल 13 मेगावाट बिजली उपलब्ध थी जिसमें रियासतों की राजधानियों और कुछ बड़े कस्बों में रोशनी देखी जा सकती थी। शेष पूरा राजस्थान अंधकार में रहता था, घरों में तेल के दीपक, चिमनियां और लालटेन टिमटिमाते रहते थे।
राज्य की जैसी दयनीय हालक बिजली, पेयजल, सिंचाई, कृषि और सड़कों की थी, वैसी ही बल्कि उससे भी बदतर हालत शिक्षा, चिकित्सा, उद्योग आदि की थी। साक्षरता की दर मात्र आठ प्रतिशत और उसमें भी महिला साक्षरता की दर मात्र दो प्रतिशत थी। उस समय राज्य में कुल लगभग पांच हजार स्कूल और 24 काॅलेज थे। उदाहरण के तौर पर आज के जिला मुख्यालय हनुमानगढ़ टाउन में केवल एक प्राइमरी स्कूल तथा हनुमानगढ़ जंक्शन में एक मिडिल स्कूल था। संगरिया और श्रीगंगानगर में एक-एक हाई स्कूल थे। श्रीगंगानगर में हाई स्कूल के साथ ही इण्टरमीडियेट काॅलेज था जहां बारहवीं तक की पढ़ाई होती थी। इण्टरमीडियेट की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद श्रीगंगानगर के छात्रों को बी.ए. की शिक्षा के लिए बीकानेर जाना पड़ता था क्योंकि श्रीगंगानगर में स्नातक स्तर की शिक्षा देने वाला कोई काॅलेज नहीं था। पिछड़ेपन की यह विरासत श्री सुखाड़िया को मिली थी। इसे सर्वांगीण विकास और खुशहाली में परिवर्तित करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। इसके लिए बहुत अधिक वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता थी। राज्य के अपने साधन अत्यल्प थे। उन्हीें दिनों हमारे प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने योजना आयोग का गठन कर पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास का एक अभिनव अनुष्ठान प्रारम्भ किया। योजना आयोग द्वारा राज्यों को विकास योजनाओं की क्रियान्विति के लिए वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराने की प्रक्रिया प्राप्ति प्रारम्भ की गई। राजस्थान के गठन के लगभग दो वर्ष बाद ही देश में प्रथम पंचवर्षीय योजना का निर्माण किया गया। राजस्थान को प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) के लिए 54 करोड़ 15 लाख रूपये, द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) के लिए 102 करोड़ 74 लाख रूपये, तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-1966) के लिए 212 करोड़ 70 लाख रूपये, 1966-69 की वार्षिक योजनाओं के लिए 136 करोड़ 76 लाख रूपये और चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (1969-74) के लिए 308 करोड़ 79 लाख रूपये स्वीकृत किए गये।
आज जब हम साढ़े बारह हजार करोड़ रूपये की आठवीं पंचवर्षीय योजना और लगभग 28 हजार करोड़ रूपये की नवीं पंचवर्षीय योजना की बात करते है तो श्री सुखाड़िया के मुख्यमंत्री काल की योजनाओं के वित्तीय प्रावधान न केवल अत्यल्प बल्कि अविश्वसनीय से लगते है।
राजस्थान राज्य का पहला बजट 1950-51 में बनाया गया था जिसमें राजस्व प्राप्तियां 1460.53 लाख, राजस्व व्यय 1391.82 लाख और पूंजीगत व्यय 200.53 लाख रूपये था। श्री सुखाड़िया के मुख्यमंत्री बनने के लगभग 10 वर्ष बाद इस बजट में काफी वृद्धि हुई। 1965-66 के बजट में राजस्व प्राप्तियों की मद में 7968 लाख तथा राजस्व व्यय की मद में 8614 लाख रूपये का प्रावधान किया गया था। पंचवर्षीय योजनाओं के अंतर्गत विकास कार्यो और सामाजिक सेवाओं पर अधिकतम व्यय करने की दृष्टि से राज्य के आंतरिक वित्तीय संसाधनों में वृद्धि करने के लिए निरन्तर प्रयास किये गये। लेकिन इस बजट की तुलना यदि हम आज के बजट से करें तो सहसा विश्वास नहीं होगा कि इतने अल्प वित्तीय प्रावधानों से कैसे इतनी बड़ी-बड़ी परियोजनाओं का कार्य सम्पन्न होना संभव हो सका। राज्य के वर्ष 2000-2001 के बजट में 11222.57 करोड़ रूपये की राजस्व प्राप्तियों और 14569.27 करोड़ रूपये के राजस्व व्यय का प्रावधान किया गया है। इसके अलावा पूंजीगत प्राप्तियों की मद में 7105.41 करोड़ रूपये और पूंजीगत व्यय की मद में 3871.5 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है।
सूखी धरती को जीवनदाता जल का वरदान
श्री सुखाड़िया ने इस रेगिस्तानी भू-भाग के गांव-गांव और ढाणी-ढाणी में जाकर वहां के लोगों को अकाल की विभीषिका से जूझते और अपने मवेशियों को बचाने के लिये पलायन करते देखा। वे हर बार वहां से नम आंखों और मानवीय त्रासदी के प्रति करूणा से भरे दिल के साथ लौटते। उनका निश्चय दृढ़ से दृढ़तर होता गया कि चाहे कुछ भी करना पड़े, इस सदियों से सूखी भूमि को जीवनदाता जल के वरदान से आप्लावित करना ही होगा।
उन दिनों नदियों के जल के बंटवारे को लेकर भारत और पाकिस्तान में विवाद चल रहा था। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू की पहल पर विश्व बैंक ने मध्यस्थता करके इस विवाद का हल निकालना स्वीकार किया था। श्री सुखाड़िया के सुझाव पर नेहरूजी ने विश्व बैंक के अध्यक्ष को राजस्थान का यह रेगिस्तानी भू-भाग देखने के लिए राजी किया। इस अंतहीन रेगिस्तान और यहां के निवासियों की कठिनतम परिस्थिति को देखकर विश्व बैंक के अध्यक्ष श्री ब्लेक द्रवित हो गये और उन्होंने वहीं घोषणा कर दी कि इस जल पर यदि किसी का पहला अधिकार बनता है तो वह यही राजस्थान का भू-भाग है। यदि इस जल का उपयोग इस अंतहीन रेगिस्तान की प्यास को मिटाने के लिये नहीं किया गया तो यह जल व्यर्थ ही अरब सागर में चला जायेगा। यदि ऐसा हुआ तो मानवीय त्रासदी की इससे बड़ी विडम्बना और कोई नहीं हो सकती। इस मानवीय आधार पर जल बंटवारे और उपयोग की ‘‘सिंधु-जल संधि’’ का प्रारूत तैयार हुआ जिस पर भारत और पाकिस्तान ने कराची में 19 सितम्बर, 1960 को हस्ताक्षर किये। इसके अनुसार रावी, व्यास और सतलज नदियों के सम्पूर्ण जल के उपयोग का अधिकार भारत को मिल गया।
स्पप्न साकार
राजस्थान के तीन स्वप्न दृष्टाओं ने इस सदी के तीन काल खण्डों में एक ही स्वप्न देखा था, जिसके इस संधि से साकार होने का मार्ग प्रशस्त हुआ। सबसे पहले बीसवीं सदी के प्रारम्भिक वर्षो में बीकानेर के भूतपूर्व महाराजा स्व. श्री गंगासिंह ने कल्पना की थी कि पंजाब की नदियों के पानी से बीकानेर रियासत के कुछ भू-भाग को सरसब्ज बनाया जा सकता है। उन्होंने न केवल कल्पना ही की बल्कि अदम्य साहस और विलक्षण कूटनीतिक कौशल के आधार पर सतलज नदी से जल के उपयोग का अधिकार प्राप्त किया और कम से कम समय में उन्होने गंग नहर का निर्माण कर श्रीगंगानगर जिले के उत्तरी पश्चिमी भू-भाग के रेगिस्तानी क्षेत्र को हरियाली और खुशहाली से आप्लावित कर दिया। वर्ष 1927 की 27 अक्टूबर को राष्ट्र पुरूष महामना पंडित मदनमोहन मालवीय ने वैदिक पद्धति से पूजा-अर्चना कर गंग नहर में जलावतरण का शुभांरभ कराया था। उसी समय महाराज गंगासिंह ने यह सपना संजोया था कि पंजाब की नदियों के अथाह जल के उपयोग से बीकानेर रियासत के शेष भाग और पड़ौस की अन्य कई रियासतों की प्यासी भूमि को भी सरसब्ज बनाया जा सकता है। महाराजा गंगासिंह की प्रेरणा से उनके निधन के 15 वर्ष पश्चात् 1948 में उन्हीें की रियासत में सेवारत एक युवा इंजीनियर श्री कँवरसेन ने भी सही सपना देखा था कि सतलज और व्यास नदियों के संगम स्थल के नीचे की ओर हरिके में निर्मित हैडवक्र्स से व्यास नदी के जल से यदि एक नहर निकाली जाये तो वह उत्तरी-पश्चिमी राजस्थान के सम्पूर्ण भू-भाग को हरियाली और खुशहाली का वरदान दे सकती है। यह भू-भाग वही है जहां कभी पौराणिक सरस्वती नदी का प्रवाह था। यह पूरा क्षेत्र धन-धान्य और समृद्धि से परिपूर्ण था। इस नदी के किनारे आच्छादित हरीतिमा में बैठकर ही हमारे ऋषियों ने वेदों की रचना की थी। इसी भू-भाग में कालीबंगा में जो अवशेष मिले है उनसे प्रमाणित होता है कि आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व इस क्षेत्र में एक महान सभ्यता का निवास था। हाल ही में हुए भूगर्भीय सर्वेक्षणों ने भी सिद्ध कर दिया है कि सरस्वती नदी पौराणिक गाथाओं की कल्पना मात्र नहीं है बल्कि आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व इस नदी का पंजाब से लेकर कच्छ के मुहाने तक के भू-भाग में होकर प्रवाह था। यह मात्र संयोग ही नहीं है कि राजस्थान नहर का निर्माण पुरातन सरस्वती नदी के प्रवाह के मार्ग पर ही हुआ है।
यही सपना देखने वाले तीसरे व्यक्ति राजस्थान के भूतपूर्व मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया थे। उनकी दृष्टि में भी राजस्थान में अकाल और अभाव के निराकरण का स्थायी समाधान राजस्थान नहर से सम्भव हो सकता था। वे नवम्बर, 1954 में मुख्यमंत्री बने और मात्र दो माह बाद ही जनवरी, 1955 में उन्होंने सम्बन्धित राज्यों के साथ समझौता कर सिंध नदी समूह से मिलने वाले जल में से 8 मिलियन एकड़ फुट (एम.ए.एफ.) जल राजस्थान के लिए सुरक्षित करा लिया। यह समझौता आने वाले समय में राजस्थान के हितों को सुरक्षित रखने की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ।
राजस्थान नहर का श्रीगणेश
राज्य के वित्तीय संसाधन अत्यन्त अल्प होते हुए भी राज्य सरकार ने सभी औपचारिकताएं पूर्ण कर आदेश दिनांक 27 जुलाई, 1957 द्वारा राजस्थान नहर परियोजना को विधिवत स्वीकृति प्रदान कर दी जिस पर 66.67 करोड़ रूपये का व्यय होने का अनुमान था। इसमें हैडवक्र्स की लागत में राजस्थान के अंशदान की राशि भी सम्मिलित थी। इन अनुमानों में राजस्थान नहर द्वारा 13.58 लाख हैक्टेयर भूमि को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने का प्रस्ताव था। इसमें से 3.64 लाख हैक्टेयर भूमि के लिए बारह मासी सिंचाई की व्यवस्था थी। जल बंटवारे का भारत-पाकिस्तान संधि द्वारा स्थायी समाधान होने पर वर्ष 1963 में नहर परियोजना के आकार में विस्तार किया गया और परियोजना पर होने वाले अनुमानित व्यय को बढ़ाकर 184.09 करोड़ रूपये कर दिया गया।
यहां यह उल्लेखनीय है कि राजस्थान की द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में कुल 102.74 करोड़ रूपये का प्रावधान था। तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66) भी मात्र 212.70 करोड़ रूपये की थी। इस अल्प योजना राशि को देखते हुए लगभग दो सौ करोड़ रूपये की केवल एक सिंचाई योजना बनाना वास्तव में विलक्षण साहस और आत्मविश्वास की बात थी। ऐसी वित्तीय स्थिति में परियोजना को योजना आयोग और केन्द्रीय सरकार के सिंचाई मंत्रालय से स्वीकृत करा लेना एक चमत्कारिक उपलब्धि से कम नहीं था।
इस विशाल परियोजना को साकार रूप देने का कार्य भी कम चमत्कारी नहीं था। वित्तीय संसाधन अत्यल्प होने के बावजूद श्री सुखाड़िया ने राजस्थान नहर परियोजना को राजस्थान मरू प्रदेश के खुशहाल भविष्य की स्वर्णिम भाग्य रेखा मानते हुए इसके निर्माण में योजनाबद्ध तरीके से अथक् प्रयास किये। यद्यपि इस परियोजना के क्रियान्वयन की प्रगति अपेक्षाकृत धीमी रही है, लेकिन फिर भी उपलब्ध संसाधनों को दृष्टिगत रखते हुए सम्भवतया गति और अधिक तेज भी नहीं हो सकती थी। श्री सुखाड़िया ने प्रयास किये थे कि इस परियोजना को भारत सरकार राष्ट्रीय स्तर की परियोजना स्वीकार कर इसके निर्माण का उत्तरदायित्व स्वयं ले, लेकिन केन्द्रीय सरकार ने ऐसा करना उचित नहीं समझा। वांछित मात्रा में विदेशी सहायता भी उपलब्ध नहीं हो सकी। इस नहर परियोजना का निर्माण कार्य प्रकृति की क्रूरतम भौगोलिक स्थिति के मध्य प्रारम्भ हुआ था। नहर का जो भाग सप्ताहों के श्रम के पश्चात् खोदा जाता था, वह दो दिनों के तीव्र रेतीले अंधड़ से भर जाता था। आसपास कही भी मीलों तक पेयजल का कोई प्राकृतिक स्रोत नहीं था। कोई सड़क सम्पर्क नहीं था। इस भू-भाग पर चार पहिया वाहनों का चलना दुष्कर था। इस सब स्थिति के बावजूद श्री सुखाड़िया ने 8 जुलाई, 1971 को जब मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दिया तो मुख्य नहर के प्रथम चरण 80 मील तक का कार्य पूरा हो चुका था। 80 मील के बाद 122 मील तक का शेष कार्य प्रगति पर था। नोरंगदेसर, रावतसर, जोरावतपुरा, खोदान, खेतावली, थेतर व कन्नौर वितरक नहरों तथा सूरतगढ़ शाखा का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका था। इसके अतिरिक्त सरदारपुरा, चुली, जसाभाटी, सोमासर तथा भोजेवाली वितरक नहरों का कार्य प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जा रहा था। यही नहीं आंधी चलने के समय रेत को इन नहरों में गिरने से रोकने के लिए आसपास के टीलों तथा नहर के किनारों पर चतुर्थ पंचवर्षीय योजना की अवधि में लगभग एक करोड़ रूपये का वृक्षारोपण कार्य किया गया।
इन सब सघन प्रयासों के फलस्वरूप श्री सुखाड़िया के शासन के अंतिम वर्ष में लगभग एक लाख 80 हजार हैक्टेयर कृषि भूमि को इस नहर परियोजना से सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराया गया। इससे पूर्व के वर्ष 1969-70 में एक लाख अड़तीस हजार हैक्टेयर कृषि भूमि में सिंचाई हुई थी।
अन्य सिंचाई परियोजनायें
चम्बल नदी घाटी योजना के अंतर्गत कोटा बैराज तथा उसकी बांई और दाहिनी नहरों का कार्य लगभग पूरा किया गया। इनके द्वारा वर्ष 1970-71 में लगभग एक लाख 52 हजार हैक्टेयर कृषि भूमि में सिंचाई के लिए जल उपलब्ध होने लगा।
व्यास बहुउद्धेशीय परियोजना के कार्य में भी काफी प्रगति हुई। श्री सुखाड़िया के शासन के अंतिम वर्ष में 8 मध्यम सिंचाई परियोजनाओं का मुख्य कार्य पूरा किया गया। अंगोर, गोपालपुरा, भीमसागर एवं मेजा फीडर योजनाओं पर भी कार्य प्रारम्भ किया गया। इसके अतिरिक्त 84 लघु सिंचाई परियोजनाओं में से 35 पर कार्य पूरा हो चुका था। सिंचाई के साधन उपलब्ध होने तथा उर्वरकों, कीटनाशक दवाईयों का वितरण तथा अन्य उन्नत विधियों के प्रयोग के फलस्वरूप वर्ष 1970-71 में लगभग 76 लाख टन खाद्यान्न का उत्पादन हुआ जो उस वक्त तक का एक कीर्तिमान था। जिस समय श्री सुखाड़िया मुख्यमंत्री बने थे, उस समय कुल खाद्यान्न उत्पादन मात्र लगभग 31 लाख टन था। राज्य की जनता की खुशहाली और आत्मनिर्भरता की ओर यही एक बड़ा कदम था। श्री सुखाड़िया ने अपने इस सपने को साकार होते देखा।
अलवर, भरतपुर एवं उदयपुर जिलों में विकास एजेंसियां स्थापित की गई। इसके अलावा प्रत्येक जिले के लिए डेढ़-डेढ़ करोड़ रूपयों की योजनाएं स्वीकृत की गई जिनके अंतर्गत लघु कृषको को सिंचाई, पशुधन, बीज आदि के लिए ऋण तथा अनुदान उपलब्ध कराया जाने लगा। इनक कार्यक्रमों से कृषि के अलावा कृषि से सम्बन्धित व्यवसायों जैसे पशुपालन, डेयरी, बगीचों आदि के विकसित होने का मार्ग भी प्रशस्त हुआ।
कृषि के सर्वांगीण विकास के लिए सहकारिता को मुख्य आधार मानते हुए राज्य के कुल गांवों में से 92 प्रतिशत गांव एवं 41 प्रतिशत कृषक परिवारों को सहकारिता के आंदोलन से जोड़ा गया। राज्य में सर्वप्रथम सहकारी क्षेत्र में गुलाबपुरा में एक स्पीनिंग मिल की स्थापना की गई। राजस्थान में, विशेषकर उसके रेगिस्तानी क्षेत्र में, भूमिगत जल के विशेष महत्व को देखते हुए राजस्थान भू-जलमण्डल की गतिविधियों को विस्तार दिया गया। 3513 कुओं को विस्फोट द्वारा गहरा किया गया जिनसे लगभग 3 हजार हैक्टेयर अतिरिक्त कृषि भूमि में सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने लगी। भू-जल मण्डल द्वारा किये गये सर्वेक्षणों से पता चला कि मारवाड़-छाबड़ी तथा जैसलमेर जिलें के लाठी-चांदन क्षेत्रों में भू-जल के विशाल भण्डार है। वर्ष 1971 तक 22 नगरों में स्वच्छ पेयजल की व्यवस्था कर दी गई। इसके अलावा 299 ग्रामीण जलप्रदाय योजनाओं का कार्य पूर्ण किया गया। बांकापट्टी में फ्लोराइड रहित स्वच्छ पेयजल की योजना श्री सुखाड़िया ने ही प्रारम्भ की थी।
क्रांतिकारी भूमि सुधार
श्री सुखाड़िया का मरूस्थल की प्यासी भूमि को जल-आप्लाविक करने के सपने जैसा ही दूसरा सपना किसानों को जागीरदारों के शोषण से मुक्त कर कृषि भूमि पर पूर्ण स्वामित्व प्रदान करना था। राजस्थान में प्रजामण्डल का आंदोलन मूलतः जागीरदारों की स्वेच्छाचारिता और शोषण के विरूद्ध था। बिजौलिया का किसान आंदोलन इसका एक ज्वलन्त उदाहरण था। जागीरदारी प्रथा ने पूरे राजस्थान की ग्रामीण जनता को आतंकित किया हुआ था। जागीरदार उससे अनेक प्रकार की श्रमसाध्य और जानलेवा बेगारें लेते थे। गरीब और असहाय किसान खेत को जोतते, फसलों को पानी देते, उनकी रक्षा करते और खलिहानों को अनाज से भर देते। जागीरदार अपने गढ़ में ऐय्याशी में मस्त रहता। वह नाम मात्र का भी परिश्रम नहीं करता। अधिकांश अनाज उसके गढ़ में जाता और गरीब बेगारी परिवार असहाय खड़ा-खड़ा देखता रहता। श्री सुखाड़िया ने प्रजामण्डल के एक जुझारू कार्यकर्ता के रूप में इसी शोषण को समाप्त करने के लिये आंदोलन किये थे और अनेकों बार जागीरदारों के संकेत पर पुलिस की यातनाएं सही थी। पहले राज्य मंत्रिमण्डल के सदस्य के रूप् में और फिर मुख्यमंत्री बनने पर स्वाभाविक रूप से उनका पहला कदम जागीर प्रथा का उन्मूलन कर जमीन जोतने वाले को जमीन का पूर्ण स्वामित्व प्रदान करना था। तत्सम्बन्धी कानून विधानसभा द्वारा पारित होते ही उसी दिन से जमीन जोतने वाला गरीब किसान जमीन पर खातेदारी अधिकार प्राप्त कर उसका स्वामी बन गया। इस क्रांतिकारी कानूनों से राजस्थान के क्षेत्रफल के 60 प्रतिशत भू-भाग में स्थित 16,780 जागीरी गांवों और राज्य के आठ जिलों में स्थित 4780 गांवों की जमींदारी और बिस्वेदारी प्रथा से उत्पीड़ित किसानों को भूमि पर स्वामित्व मिल कर उनकी शोषण से मुक्ति और खुशहाली का मार्ग प्रशस्त हुआ।
सदी की सबसे बड़ी क्रांति
भूमि सुधारों की नई व्यवस्था के लिये लागू किये गये राजस्थान काश्तकारी अधिनियम, 1955 के अंतर्गत राज्य में खातेदार काश्तकार, खुदकाश्त खातेदार और गैर खातेदार काश्तकार कृषकों की तीन श्रेणियां रह गयी। इसी प्रकार राजस्थान राजस्व न्यायालयों, राजस्व अधिकारियों की नियुक्तियां, अधिकार, कर्तव्य, नक्शे और भू-आलेखों की तैयारी, रख-रखाव, राजस्व और लगान बन्दोबस्त, भूसम्पत्तियों के विभाजन आदि के नियम लागू किये गये। वर्ष 1960 में श्री सुखाड़िया ने राजस्थान काश्तकारी अधिनियम में संशोधन कर जोत की अधिकतम सीमा का निर्धारण किया। इससे भी भूमिहीन किसानों को कृषि भूमि उपलब्ध करया जाना संभव हुआ। इन लोक कल्याणकारी कानूनों के क्रियान्वयन पर नजर रख कर उनकी पालना काफी सीमा तक सुनिश्चित की गई। यह राजस्थान जैसे सामन्तवादी पृष्ठभूमि के राज्य के लिये इस सदी की महानतम मौन क्रांति थी। इस क्रांति के प्रेरक, प्रवर्तक और नियामक सही अर्थो में श्री सुखाडिया थे। यह उल्लेखनीय है कि देश के कुछ तथाकथित प्रगतिशील राज्यों में भूमि सुधार सम्बन्धी कानून राजस्थान द्वारा की गई पहल के काफी समय बाद बनाये गये। भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री नवलकिशोर शर्मा के शब्दों में ‘‘परम्पराओं से जकड़े प्रदेश में जमींदारी और जागीरदारी प्रथा की जड़े गहरी होना स्वाभाविक था। सुखाड़िया जी ने भूमि सुधार का कुठार इन जड़ों पर चलाया। जितना भूमि सुधार का कार्य राजस्थान में सुखाड़िया जी के शासनकाल में हुआ उतना भारत के किसी प्रान्त में कही भी नहीं हुआ। मालिकों के हाथों से अधिकार छीनकर जमीन पर खेती करने वाले परिवारों को मालिकाना अधिकार दिलाने एवं भूमिहीनों को भूमि उपलब्ध कराने में सुखाड़िया जी सफलतम मुख्यमंत्री रहे।’’ भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों को विधानसभा में पारित कराना और उन्हें लागू करना वास्तव में एक दुष्कर कार्य था। राजस्थान की पहली और दूसरी विधानसभाओं में सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी का बहुमत तो था लेकिन प्रतिपक्ष भी बहुत मुखर था। इनमें से कुछ माननीय सदस्य भूतपूर्व राजघरानों और जागीरदारों से जुड़े हुए थे। भूमि सुधार जब लागू किये गये तो भू-स्वामियों की ओर से जबर्दस्त आंदोलन प्रारम्भ किया गया। उनमें इस बात का आक्रोश था कि पहले राजाओं के राज गये, अब जागीरें और भू-स्वामियों की जमीने छीनी जा रही है। जयपुर की सड़कों पर भू-स्वामियों के बड़े-बड़े जुलूस निकलते जिनमें बहुत से लोगों के हाथों में तलवारें होती थी। श्री सुखाड़िया ने इस आंदोलन का दृढ़तापूर्वक सामना किया। सरकार की भूमि सुधारों के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति और किसी के दबाव में नहीं आने की छवि के कारण आंदोलन विफल हो गया। इसके साथ एक कारण यह भी था कि जागीरदारों की आजीविका बनाये रखने के लिये उन्हें पंत अवार्ड के तहत खुद काश्त जमीन और मुआवजा देने का प्रावधान किया गया था। सरकार की इस सदाशयता मिश्रित दृढ़ नीति के कारण भूमि-सुधार कार्यक्रम का क्रियान्वयन सुनिश्चित हुआ।
श्री सुखाड़िया संत विनोबा भावे से अत्यधिक प्रभावित थे। वे उनके द्वारा चलाये गये भू-दान आंदोलन को भूमि-सुधारों के क्षेत्र में एक अहिंसक क्रांति के रूप में देखते थे। श्री सुखाड़िया के निमंत्रण पर संत विनोबा भावे ने राजस्थान का व्यापक दौरा किया। राज्य सरकार के समर्थन और सहयोग से भू-दान आंदोलन को जितना प्रोत्साहन राजस्थान में मिला उतना अन्य किसी राज्य में नहीं मिला। लाखों एकड़ जमीन दान में प्राप्त कर भूमिहीनों को आवंटित की गई। इस सम्बन्ध में अलग से कानून बना कर भू-दान के भूमि आवंटियों की समितियों को ग्राम पंचायत के रूप में मान्यता दी गई।
पंचायती राज की स्थापना
श्री सुखाड़िया भूमि सुधारों के साथ-साथ लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के आधार पर पंचायती राज की स्थापना को राज्य के ग्रामीण अंचलों के सर्वांगीण विकास और सत्ता में सामान्यजन की प्रभावी भागीदारी के लिये आवश्यक मानते थे। 2 अक्टूबर, 1959 को गांधी जयन्ती के अवसर पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने नागौर में आयोजित एक विशाल जन सम्मेलन में दीप प्रज्ज्वलित कर पंचायती राज व्यवस्था का श्रीगणेश किया। राजस्थान इस दिशा में पहल करने वाला देश का पहला राज्य था। इस लक्ष्य के अंतर्गत पंचायती राज संस्थाओं को अधिकाधिक प्रशासनिक अधिकार दिये गये। न्याय पंचायतों की स्थापना कर उन्हें न्यायिक अधिकार भी प्रदान किये गये। श्री सुखाड़िया प्रशासनिक अधिकारियों के सम्मेलनों में उन्हें सम्बोधित करते हुए उनसे यह अपेक्षा करते थे कि वे स्वयं में ग्रामीण दृष्टिकोण पैदा करें। अधिकारियों को राजस्थान की परम्परा के अनुसार देहातों में विकास कार्यो को सफल बनाने के लिये कठिन परिश्रम करना और वैसा ही दृष्टिकोण बनाना होेगा। श्री सुखाड़िया की सख्त हिदायत थी कि किसी भी विकास अधिकार का स्थानांतरण पंचायत समिति के प्रधान से परामर्श किये बिना नहीं किया जाना चाहिए।
श्री सुखाड़िया के कार्यकाल में पंचायती राज संस्थाओं के 1959, 1962 और 1965 में तीन बार चुनाव हुए। इन चुनावों के प्रति ग्रामीण जनता का कितना जबर्दस्त उत्साह था यह इसी बात से प्रकट है कि इन चुनावों में मतदान का प्रतिशत विधान सभा और लोक सभा के चुनावों में हुए मतदान के प्रतिशत से कही अधिक था। कुछ स्थानों पर तो 95 प्रतिशत तक मतदान हुआ।
पंचायती राज व्यवस्था के प्रति सामान्य जन के उत्साह को देखते हुए इसके अब तक के क्रियान्वयन का मूल्यांकन तथा इसे और अधिक शक्तिशाली बनाने हेतु उपाय सुझाने के लिए तत्कालीन सांसद श्री सादिक अली की अध्यक्षता में एक अध्ययन दल का गठन किया गया। इस अध्ययन दल की सिफारिशों के आधार पर ग्राम सभाओं को कानून-सम्मत संस्था के रूप् में मान्यता दी गई ओर उसे पंचायती राज का मूल आधार बनाया गया। सरपंचों के लिये वर्ष में दो बार प्रत्येक ग्राम में ग्रामसभा की बैठकें आयोजित करना अनिवार्य किया गया। ग्राम सभाओं की इन बैठकों में पंचायत का बजट, अंकेक्षण रिपोर्ट, वार्षिक योजना, विकास का विवरण प्रस्तुत करना आवश्यक था। इसके साथ ही ग्रामीण सहकारी समिति एवं प्राथमिक पाठशाला की कार्य प्रगति के सम्बन्ध में ग्राम सभा को जानकारी देना भी आवश्यक था। यही नहीं ग्राम पंचायत द्वारा किये गये भूमि आवंटन, नामान्तरण, रूपान्तरण आदि की सूचना भी ग्राम सभा में देना अपेक्षित था। ग्राम सभा की इन बैठकों के माध्यम से ग्रामीण जनता को सूचना का अधिकार उपलब्ध करा दिया गया था। इससे वे न केवल ग्राम पंचायत के कार्यकलापों पर अपनी नजर रख सकते थे बल्कि अपने सुझावों से विकास कार्यक्रमों में अपनी सक्रिय सहभागिता भी सुनिश्चित कर सकते थे। सहभागिता की इस भावना का ही परिणाम था कि पंचायती राज संस्थाओं ने वर्ष 1966 तक आम सहमति के वातावरण में कर लगा कर विकास कार्यो के लिये चालीस लाख रूपये से भी अधिक राशि के स्वंय के वित्तीय कार्यो के लिये चालीस लाख रूपये से भी अधिक राशि के स्वयं के वित्तीय संसाधन जुटाने की व्यवस्था कर ली थी। उस समय के राज्य के बजट के आकार को देखते हुए इस कर राशि का अपना महत्व था।
राजस्थान में वर्ष 1954-55 में खाद्यान्न उत्पादन कुल 31 लाख 18 हजार टन था जो राज्य की जनसंख्या की आवश्यकताओं को देखते हुए अपर्याप्त था। राज्य सरकार द्वारा कृषि क्षेत्र के विस्तार एवं उत्पादन में वृद्धि करने के प्रयासों में ग्राम पंचायतों को सहभागी बनाने के उद्धेश्य से प्रत्येक पंचायत को 15 बीघा भूमि आवंटित की गई जिससे कि वे खेती की नई पद्धतियों का प्रयोग कर सामान्य कृषक को इन्हें अपनाने के लिये प्रेरित कर सके। रेगिस्तानी क्षेत्र की प्रत्येक ग्राम पंचायत को 45 बीघा भूमि आवंटित की गई। उन दिनों उन्नत बीजों और उर्वरकों को लोकप्रिय बनाने के लिए उनके वितरण का लगभग पूरा उत्तरदायित्व पंचायती राज संस्थाओं को दिया हुआ था। प्रधान, विकास अधिकारी, कृषि-प्रसार अधिकारी और सरपंच फसल बोने के समय इसी कार्य में व्यस्त रहते थे। वे किसानों को कम्पोस्ट खाद बनाने के लिए खड्डे खोदने और कृषि की उन्नत विधि अपनाने के लिये प्रेरित करते। विकास अधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए उदयपुर, नीलाखेड़ी और जामनगर स्थित सामुदायिक विकास प्रशिक्षण संस्थानों में तीन माह की अवधि के लिये भेजा जाता था। इस प्रशिक्षण कार्यक्रम में शारीरिक परिश्रम और व्यावहारिक ज्ञान को बहुत महत्व दिया जाता था। विकास अधिकारियों को लगभग दस दिनों के लिये समीप के एक गांव में रहने के लिये भेज दिया जाता था। वहां वे दिनभर एक किसान परिवार के सदस्यों के साथ पकी हुई फसल को काटते, अपरान्ह में खेत के किनारे निर्धारित लम्बाई, चैड़ाई और गहराई का कम्पोस्ट खाद का खड्डा खोद कर उसमें हरी पत्तियां, गोबर आदि भरते और किसानों को उसका लाभ समझाते।
श्री शिवचरण माथुर उन दिनों भीलवाड़ा की जिला परिषद के प्रमुख थे। बाद में वे वर्ष 1981 में राजस्थान के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री के रूप में अपने भाषणों में प्रायः पंचायती राज के उस स्वर्णिम युग का स्मरण करते और कहते कि प्रमुख की हैसियत से जब वे गांवों का दौरा करते, उसकी जीप में हमेशा रासायनिक खाद के कट्टे रखे हुए होते थे। वे गांववासियों को खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए इनका प्रयोग करने के लिये प्रेरित करते और जिस दिन वे पांच-सात कट्टे वितरित करने में सफल होते, उन्हें आंतरिक प्रसन्नता का अनुभव होता था।
यह उल्लेखनीय है कि उन दिनों रासायनिक खाद और उन्नत बीजों का निःशुल्क वितरण किया जाता था। लेकिन इसके बावजूद पारम्परिक तरीके से खेती करने वाले किसान इन्हें संदेह की दृष्टि से देखते थे और परीक्षण के तौर पर भी इनका उपयोग करने में हिचकिचाते थे। इसलिए पंचायत समितियों के ग्राम सेवकों द्वारा गांव-गांव में किसानों को इनका प्रयोग करने के लिये प्रेरित करने का सघन प्रयास किया जाता था। उन्हें यह भी बताया जाता था कि बीजारोपण से पूर्व खेत को किस प्रकार तैयार किया जाये, बीज सीधी कतार में निश्चित दूरी पर बोये जायें, सिंचाई कितने दिनों के अंतराल से की जाये और खेतों को खरपतवार और हानिकारक कीटों से किस प्रकार मुक्त किया जाय? प्रारम्भ में किसानों को विश्वास की नहीं होता था कि पैंट-कोअ पहनने वाले लोग भी खेती के बारें में कोई जानकारी रख सकते है। उनका विश्वास अर्जित कर उन्हें समझाना और नई विधियों के उपयोग के लिये सहमत करना वास्तव में एक कठिन कार्य था।
अथक प्रयासों के बाद जो किसान इसके लिये सहमत हो जाता था उसके खेत पर परीक्षण के तौर पर रासायनिक खाद और उन्नत बीज का प्रयोग किया जाता। खेत की मेड़ पर एक सूचना पट्ट लगा कर उस पर उपयोग में ली गई रासायनिक खाद और बीज की मात्रा, क्षेत्रफल और दिनांक अंकित किया जात। फसल पकने पर गांववासियों को दिखाया जाता कि नई विधि के प्रयोग से उत्पादन में कितनी अधिक वृद्धि हुई है।
राजस्थान की हरित क्रांति और खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता के लिये बहुत बड़ा श्रेय सिंचाई सुविधाओं में विस्तार के साथ पंचायती राज के प्रारम्भिक वर्षो में कृषि की नई विधियों को लोकप्रिय बनाने के लिए किए गये उपरोक्त प्रयासों को जाता है।
जिला परिषदों को महत्व
प्रारम्भ में जिला परिषदों का कार्य समन्वय और निरीक्षण तक ही सीमित था। लेकिन इससे विकास कार्यो में उनकी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित नहीं हो सकी। राज्य सरकार ने लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण में अपनी पूर्ण आस्था व्यक्त करते हुए एक साहसिक निर्णय लेकर प्राथमिक स्वास्थय केन्द्र, प्रसूति एवं बाल कल्याण केन्द्र, आयुर्वेदिक औषधालय तथा ग्रामीण क्षेत्रों के सभी उच्च प्राथमिक विद्यालय जिला परिषदों को हस्तांतरित कर दियें। कुए गहरे करने के लिये कम्प्रेशर, ट्रैक्टर तथा पम्पिंग सेट रखने तथा किसानों को उनकी सुविधाएं प्रदान करने का कार्य भी जिला परिषदों को सौपा गया।
जब वर्ष 1960 में राज्य की तृतीय पंचवर्षीय योजना (1961-66) का प्रारूप तैयार करने का कार्य प्रारम्भ किया गया तब यह सोचा गया कि लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की भावना के अनुरूप योजना का निर्माण नीचे तृणमूल से होना चाहिए। सर्वप्रथम ग्राम पंचायतें अपनी आधारभूत आवश्यकताओं, विकास की संभावनाओं और स्वयं के वित्तीय एवं प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर ग्राम सभा के परामर्श से अपने पंचायत क्षेत्र की पंचवर्षीय योजना तैयार करें। इसमें पंचायत समिति उनसे सहयोग करेगी। ग्राम पंचायतों की योजना के आधार पर पंचायत समिति क्षेत्र के लिए पंचवषी्रय योजना तैयार की जायेगी। इन सब को समाहित करते हुए जिला परिषद द्वारा जिले की पंचवर्षीय योजना तैयार की जायेगी। सभी जिलों की योजनाओं का समावेश कर राज्य की पंचवर्षीय योजना का निर्माण कराया जायेगा।
विकास अधिकार और सभी प्रसार अधिकारी लगभग एक माह तक ग्राम पंचायतों की बैठकों में सम्मिलित होकर पंचायत क्षेत्रों की पंचवर्षीय योजनाओं के निर्माण कार्य में समन्वय और आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन देने का कार्य करते रहे। पहली बार ग्राम पंचायतों को इस प्रकार का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपा गया था। ग्राम पंचायतों के सरपंच और सभी सदस्य इस बात से रोमांचित और अत्यन्त उत्साही थे कि सरकार ने पहली बार उन्हें अपने क्षेत्र के विकास की योजना बनाने के योग्य समझा। ग्राम पंचायतों को प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट कह दिया गया था कि उन्हें कोई मांग पत्र तैयार नहीं करना है बल्कि अपने सामथ्र्य और संसाधनों के आधार पर विकास की योजना बनानी है। उन्हें यह भी इंगित कर दिया गया था कि आगामी पांच वर्षो में अनुदान के रूप में उन्हें कितनी राशि सरकार से मिलेगी और किन योजनाओं के लिए उन्हें सरकार से कितना अंशदान मिल सकता है। उन्हें यह भी स्मरण करा दिया गया था कि कितना अंशदान मिल सकता है। उन्हें यह भी स्मरण करा दिया गया था कि पंचायत अधिनियम के अंतर्गत उनके करारोपण के क्या अधिकार है और इनके उपयोग से वे कितनी राजस्व आय कर सकते है। सभी के लिए ग्राम पंचायतों की इन बैठकों में भाग लेना एक रोमांचक अनुभव होता था। अनपढ़ ग्रामवासी अपने अनुभव और सामान्य बुद्धि से क्षेत्र के विकास के जो सुझाव और उसके लिये संसाधनों की व्यवस्था के जो उपाय सुझाते थे, वे वास्तव में मौलिक और व्यावहारिक होते थे। ग्राम पंचायतों ने जब इन पंचवर्षीय योजनाओं को स्वीकृति के लिए ग्राम सभाओं में प्रस्तुत किया, राज्य के पूरे ग्रामीण अंचल में उत्साह, स्वावलम्बन और आत्मविश्वास की प्रबल भावना का संचार हुआ।
पंचायत समिति की बैठकों में ग्राम पंचायतों की योजनाओं पर विचार हुआ। जिलाधीश और अन्य सभी जिलास्तरीय अधिकारी इन बैठकों में उपस्थित रहे। सभी ने तकनीकी और व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी सुझाव दिये जिनके आधार पर पंचायत समिति की पंचवर्षीय योजना के प्रारूप को सर्वसम्मति से अंतिम रूप दिया गया।
जिला परिषदों की बैठकों में पंचायत समितियों द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों पर गहन विचार-विमर्श किया गया। राजनीतिक दलबन्दी से ऊपर उठ कर जिले के सर्वांगीण विकास की भावना को लेकर सबने अपने विचार और सुझाव रखे। इन बैठकों में प्रधानों ओर विकास अधिकारियों के अलावा जिलाधीश, सभी जिला स्तरीय अधिकारी और संभागीय मुख्यालय से आये क्षेत्रीय विकास अधिकारी (जोनल डवलपमेन्ट ऑफिसर) ने भाग लिया।
ग्राम पंचायतों से लेकर जिला स्तर तक की विकास योजनाएँ स्थानीय स्तर पर बनाने से लोकतांत्रित विकेन्द्रीकरण और स्वावलम्बन की जो अभिनव जन-भावना प्रस्फुटित हुई, वह हमारी विकास यात्रा की एक अभूतपूर्व घटना थी। लेकिन यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है कि योजना निमा्रण की तृणमूल आधारित इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाया गया। योजना निर्माण की पूरी प्रक्रिया जयपुर के शासन सचिवालय और दिल्ली के योजना आयोग के कक्षों और गलियारों तक ही सिमट कर रह गई।
1965 का भारत-पाक युद्ध
वर्ष 1965 में जब पकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तब राजस्थान की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर बसे अनेक गांवों को युद्ध की विभीषिका का सामना करना पड़ा। उस राष्ट्रीय संकट की घड़ी में हमारी ग्राम पंचायतों ने सुरक्षा प्रहरी की भूमिका का निर्वाह किया। उन्होंने अपने क्षेत्र की रेल लाइनों, बिजली और टेलिफोन एवं तार के खम्भों, सड़कों, पुलों और पीने के पानी के स्रोतों पर दिन रात नजर रख कर पहरा लगाया। उन्होंने अपने क्षेत्रों में रहने वाले सैनिकों के आश्रित परिवारों की देखभाल का भी जिम्मा अपने ऊपर लिया। उन्होंने राष्ट्रीय संकट की उस घड़ी में जन-चेतना को जागृत और संगठित कर जनता के मनोबल को सुदृढ़ बनाये रखा।
इस प्रकार विकास और सुरक्षा, युद्ध और शांति हर स्थिति में पंचायती राज संस्थाओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। पंचायती राज संस्थाओं को सुदृढ़ बनाने और उन्हें सत्ता में सार्थक भागीदारी सौंपने के लिये श्री सुखाड़िया सदैव स्मरण किये जायेंगे। उनका शासन काल पंचायती राज संस्थाओं के इतिहास में निर्विवाद रूप से स्वर्णिम युग था।